< مزامیر 130 >
سرود زائران به هنگام بالا رفتن به اورشلیم. ای خداوند، از گرداب غم نزد تو فریاد برمیآورم. | 1 |
ऐ ख़ुदावन्द! मैंने गहराओ में से तेरे सामने फ़रियाद की है!
خداوندا، صدای مرا بشنو و به نالهام گوش فرا ده! | 2 |
ऐ ख़ुदावन्द! मेरी आवाज़ सुन ले! मेरी इल्तिजा की आवाज़ पर, तेरे कान लगे रहें।
ای خداوند، اگر تو گناهان ما را به نظر آوری، کیست که بتواند تبرئه شود؟ | 3 |
ऐ ख़ुदावन्द! अगर तू बदकारी को हिसाब में लाए, तो ऐ ख़ुदावन्द कौन क़ाईम रह सकेगा?
اما تو گناهان ما را میبخشی، پس تو را گرامی میداریم و از تو اطاعت میکنیم. | 4 |
लेकिन मग़फ़िरत तेरे हाथ में है, ताकि लोग तुझ से डरें।
من بیصبرانه منتظر خداوند هستم و به وعدهای که داده است امید بستهام. | 5 |
मैं ख़ुदावन्द का इन्तिज़ार करता हूँ। मेरी जान मुन्तज़िर है, और मुझे उसके कलाम पर भरोसा है।
آری، من منتظر خداوند هستم بیش از کشیکچیانی که منتظر دمیدن سپیدهٔ صبح هستند، آری، بیش از کشیکچیانی که منتظر دمیدن سپیدهٔ صبح هستند. | 6 |
सुबह का इन्तिज़ार करने वालों से ज़्यादा, हाँ, सुबह का इन्तिज़ार करने वालों से कहीं ज़्यादा, मेरी जान ख़ुदावन्द की मुन्तज़िर है।
ای اسرائیل، به خداوند امیدوار باش، زیرا محبت او عظیم است؛ اوست که میتواند ما را نجات فراوان بخشد. | 7 |
ऐ इस्राईल! ख़ुदावन्द पर भरोसा कर; क्यूँकि ख़ुदावन्द के हाथ में शफ़क़त है, उसी के हाथ में फ़िदिए की कसरत है।
خداوند اسرائیل را از همهٔ گناهانش نجات خواهد داد. | 8 |
और वही इस्राईल का फ़िदिया देकर, उसको सारी बदकारी से छुड़ाएगा।