< תְהִלִּים 90 >

תְּפִלָּה֮ לְמֹשֶׁ֪ה אִֽישׁ־הָאֱלֹ֫הִ֥ים אֲ‍ֽדֹנָ֗י מָעֹ֣ון אַ֭תָּה הָיִ֥יתָ לָּ֗נוּ בְּדֹ֣ר וָדֹֽר׃ 1
या रब्ब, नसल दर नसल, तू ही हमारी पनाहगाह रहा है।
בְּטֶ֤רֶם ׀ הָ֘רִ֤ים יֻלָּ֗דוּ וַתְּחֹ֣ולֵֽל אֶ֣רֶץ וְתֵבֵ֑ל וּֽמֵעֹולָ֥ם עַד־עֹ֝ולָ֗ם אַתָּ֥ה אֵֽל׃ 2
इससे पहले के पहाड़ पैदा हुए, या ज़मीन और दुनिया को तूने बनाया, इब्तिदा से हमेशा तक तू ही ख़ुदा है।
תָּשֵׁ֣ב אֱ֭נֹושׁ עַד־דַּכָּ֑א וַ֝תֹּ֗אמֶר שׁ֣וּבוּ בְנֵי־אָדָֽם׃ 3
तू इंसान को फिर ख़ाक में मिला देता है, और फ़रमाता है, “ऐ बनी आदम, लौट आओ!”
כִּ֤י אֶ֪לֶף שָׁנִ֡ים בְּֽעֵינֶ֗יךָ כְּיֹ֣ום אֶ֭תְמֹול כִּ֣י יַעֲבֹ֑ר וְאַשְׁמוּרָ֥ה בַלָּֽיְלָה׃ 4
क्यूँकि तेरी नज़र में हज़ार बरस ऐसे हैं, जैसे कल का दिन जो गुज़र गया, और जैसे रात का एक पहर।
זְ֭רַמְתָּם שֵׁנָ֣ה יִהְי֑וּ בַּ֝בֹּ֗קֶר כֶּחָצִ֥יר יַחֲלֹֽף׃ 5
तू उनको जैसे सैलाब से बहा ले जाता है; वह नींद की एक झपकी की तरह हैं, वह सुबह को उगने वाली घास की तरह हैं।
בַּ֭בֹּקֶר יָצִ֣יץ וְחָלָ֑ף לָ֝עֶ֗רֶב יְמֹולֵ֥ל וְיָבֵֽשׁ׃ 6
वह सुबह को लहलहाती और बढ़ती है, वह शाम को कटती और सूख जातीहै।
כִּֽי־כָלִ֥ינוּ בְאַפֶּ֑ךָ וּֽבַחֲמָתְךָ֥ נִבְהָֽלְנוּ׃ 7
क्यूँकि हम तेरे क़हर से फ़ना हो गए; और तेरे ग़ज़ब से परेशान हुए।
שַׁתָּ (שַׁתָּ֣ה) עֲוֹנֹתֵ֣ינוּ לְנֶגְדֶּ֑ךָ עֲ֝לֻמֵ֗נוּ לִמְאֹ֥ור פָּנֶֽיךָ׃ 8
तूने हमारी बदकिरदारी को अपने सामने रख्खा, और हमारे छुपे हुए गुनाहों को अपने चेहरे की रोशनी में।
כִּ֣י כָל־יָ֭מֵינוּ פָּנ֣וּ בְעֶבְרָתֶ֑ךָ כִּלִּ֖ינוּ שָׁנֵ֣ינוּ כְמֹו־הֶֽגֶה׃ 9
क्यूँकि हमारे तमाम दिन तेरे क़हर में गुज़रे, हमारी उम्र ख़याल की तरह जाती रहती है।
יְמֵֽי־שְׁנֹותֵ֨ינוּ בָהֶ֥ם שִׁבְעִ֪ים שָׁנָ֡ה וְאִ֤ם בִּגְבוּרֹ֨ת ׀ שְׁמֹ֘ונִ֤ים שָׁנָ֗ה וְ֭רָהְבָּם עָמָ֣ל וָאָ֑וֶן כִּי־גָ֥ז חִ֝֗ישׁ וַנָּעֻֽפָה׃ 10
हमारी उम्र की मी'आद सत्तर बरस है, या कु़व्वत हो तो अस्सी बरस; तो भी उनकी रौनक़ महज़ मशक्क़त और ग़म है, क्यूँकि वह जल्द जाती रहती है और हम उड़ जाते हैं।
מִֽי־יֹ֭ודֵעַ עֹ֣ז אַפֶּ֑ךָ וּ֝כְיִרְאָתְךָ֗ עֶבְרָתֶֽךָ׃ 11
तेरे क़हर की शिद्दत को कौन जानता है, और तेरे ख़ौफ़ के मुताबिक़ तेरे ग़ज़ब को?
לִמְנֹ֣ות יָ֭מֵינוּ כֵּ֣ן הֹודַ֑ע וְ֝נָבִ֗א לְבַ֣ב חָכְמָֽה׃ 12
हम को अपने दिन गिनना सिखा, ऐसा कि हम अक़्ल दिल हासिल करें।
שׁוּבָ֣ה יְ֭הוָה עַד־מָתָ֑י וְ֝הִנָּחֵ֗ם עַל־עֲבָדֶֽיךָ׃ 13
ऐ ख़ुदावन्द, बाज़ आ! कब तक? और अपने बन्दों पर रहम फ़रमा!
שַׂבְּעֵ֣נוּ בַבֹּ֣קֶר חַסְדֶּ֑ךָ וּֽנְרַנְּנָ֥ה וְ֝נִשְׂמְחָ֗ה בְּכָל־יָמֵֽינוּ׃ 14
सुबह को अपनी शफ़क़त से हम को आसूदा कर, ताकि हम उम्र भर ख़ुश — ओ — ख़ुर्रम रहें।
שַׂ֭מְּחֵנוּ כִּימֹ֣ות עִנִּיתָ֑נוּ שְׁ֝נֹ֗ות רָאִ֥ינוּ רָעָֽה׃ 15
जितने दिन तूने हम को दुख दिया, और जितने बरस हम मुसीबत में रहे, उतनी ही ख़ुशी हम को 'इनायत कर।
יֵרָאֶ֣ה אֶל־עֲבָדֶ֣יךָ פָעֳלֶ֑ךָ וַ֝הֲדָרְךָ֗ עַל־בְּנֵיהֶֽם׃ 16
तेरा काम तेरे बन्दों पर, और तेरा जलाल उनकी औलाद पर ज़ाहिर हो।
וִיהִ֤י ׀ נֹ֤עַם אֲדֹנָ֥י אֱלֹהֵ֗ינוּ עָ֫לֵ֥ינוּ וּמַעֲשֵׂ֣ה יָ֭דֵינוּ כֹּונְנָ֥ה עָלֵ֑ינוּ וּֽמַעֲשֵׂ֥ה יָ֝דֵ֗ינוּ כֹּונְנֵֽהוּ׃ 17
और रब्ब हमारे ख़ुदा का करम हम पर साया करे। हमारे हाथों के काम को हमारे लिए क़याम बख़्श हाँ हमारे हाथों के काम को क़याम बख़्श दे।

< תְהִלִּים 90 >