< מִשְׁלֵי 30 >

דִּבְרֵ֤י ׀ אָג֥וּר בִּן־יָקֶ֗ה הַמַּ֫שָּׂ֥א נְאֻ֣ם הַ֭גֶּבֶר לְאִֽיתִיאֵ֑ל לְאִ֖יתִיאֵ֣ל וְאֻכָֽל׃ 1
याकेह के पुत्र आगूर का वक्तव्य—एक प्रकाशन ईथिएल के लिए. इस मनुष्य की घोषणा—ईथिएल और उकाल के लिए:
כִּ֤י בַ֣עַר אָנֹכִ֣י מֵאִ֑ישׁ וְלֹֽא־בִינַ֖ת אָדָ֣ם לִֽי׃ 2
निःसंदेह, मैं इन्सान नहीं, जानवर जैसा हूं; मनुष्य के समान समझने की क्षमता भी खो चुका हूं.
וְלֹֽא־לָמַ֥דְתִּי חָכְמָ֑ה וְדַ֖עַת קְדֹשִׁ֣ים אֵדָֽע׃ 3
न तो मैं ज्ञान प्राप्‍त कर सका हूं, और न ही मुझमें महा पवित्र परमेश्वर को समझने की कोई क्षमता शेष रह गई है.
מִ֤י עָלָֽה־שָׁמַ֨יִם ׀ וַיֵּרַ֡ד מִ֤י אָֽסַף־ר֨וּחַ ׀ בְּחָפְנָ֡יו מִ֤י צָֽרַר־מַ֨יִם ׀ בַּשִּׂמְלָ֗ה מִ֭י הֵקִ֣ים כָּל־אַפְסֵי־אָ֑רֶץ מַה־שְּׁמֹ֥ו וּמַֽה־שֶּׁם־בְּ֝נֹ֗ו כִּ֣י תֵדָֽע׃ 4
कौन है, जो स्वर्ग में चढ़कर फिर उतर आया है? किसने वायु को अपनी मुट्ठी में एकत्र कर रखा है? किसने महासागर को वस्त्र में बांधकर रखा है? किसने पृथ्वी की सीमाएं स्थापित कर दी हैं? क्या है उनका नाम और क्या है उनके पुत्र का नाम? यदि आप जानते हैं! तो मुझे बता दीजिए.
כָּל־אִמְרַ֣ת אֱלֹ֣והַּ צְרוּפָ֑ה מָגֵ֥ן ה֝֗וּא לַֽחֹסִ֥ים בֹּֽו׃ 5
“परमेश्वर का हर एक वचन प्रामाणिक एवं सत्य है; वही उनके लिए ढाल समान हैं जो उनमें आश्रय लेते हैं.
אַל־תֹּ֥וסְףְּ עַל־דְּבָרָ֑יו פֶּן־יֹוכִ֖יחַ בְּךָ֣ וְנִכְזָֽבְתָּ׃ פ 6
उनके वक्तव्य में कुछ भी न जोड़ा जाए ऐसा न हो कि तुम्हें उनकी फटकार सुननी पड़े और तुम झूठ प्रमाणित हो जाओ.
שְׁ֭תַּיִם שָׁאַ֣לְתִּי מֵאִתָּ֑ךְ אַל־תִּמְנַ֥ע מִ֝מֶּ֗נִּי בְּטֶ֣רֶם אָמֽוּת׃ 7
“अपनी मृत्यु के पूर्व मैं आपसे दो आग्रह कर रहा हूं; मुझे इनसे वंचित न कीजिए.
שָׁ֤וְא ׀ וּֽדְבַר־כָּזָ֡ב הַרְחֵ֬ק מִמֶּ֗נִּי רֵ֣אשׁ וָ֭עֹשֶׁר אַל־תִּֽתֶּן־לִ֑י הַ֝טְרִיפֵ֗נִי לֶ֣חֶם חֻקִּֽי׃ 8
मुझसे वह सब अत्यंत दूर कर दीजिए, जो झूठ है, असत्य है; न तो मुझे निर्धनता में डालिए और न मुझे धन दीजिए, मात्र मुझे उतना ही भोजन प्रदान कीजिए, जितना आवश्यक है.
פֶּ֥ן אֶשְׂבַּ֨ע ׀ וְכִחַשְׁתִּי֮ וְאָמַ֗רְתִּי מִ֥י יְה֫וָ֥ה וּפֶֽן־אִוָּרֵ֥שׁ וְגָנַ֑בְתִּי וְ֝תָפַ֗שְׂתִּי שֵׁ֣ם אֱלֹהָֽי׃ פ 9
ऐसा न हो कि सम्पन्‍नता में मैं आपका त्याग ही कर दूं और कहने लगूं, ‘कौन है यह याहवेह?’ अथवा ऐसा न हो कि निर्धनता की स्थिति में मैं चोरी करने के लिए बाध्य हो जाऊं, और मेरे परमेश्वर के नाम को कलंकित कर बैठूं.
אַל־תַּלְשֵׁ֣ן עֶ֭בֶד אֶל־אֲדֹנֹו (אֲדֹנָ֑יו) פֶּֽן־יְקַלֶּלְךָ֥ וְאָשָֽׁמְתָּ׃ 10
“किसी सेवक के विरुद्ध उसके स्वामी के कान न भरना, ऐसा न हो कि वह सेवक तुम्हें शाप दे और तुम्हीं दोषी पाए जाओ.
דֹּ֭ור אָבִ֣יו יְקַלֵּ֑ל וְאֶת־אִ֝מֹּ֗ו לֹ֣א יְבָרֵֽךְ׃ 11
“एक पीढ़ी ऐसी है, जो अपने ही पिता को शाप देती है, तथा उनके मुख से उनकी माता के लिए कोई भी धन्य उद्गार नहीं निकलते;
דֹּ֭ור טָהֹ֣ור בְּעֵינָ֑יו וּ֝מִצֹּאָתֹ֗ו לֹ֣א רֻחָֽץ׃ 12
कुछ की दृष्टि में उनका अपना चालचलन शुद्ध होता है किंतु वस्तुतः उनकी अपनी ही मलिनता से वे धुले हुए नहीं होते है;
דֹּ֭ור מָה־רָמ֣וּ עֵינָ֑יו וְ֝עַפְעַפָּ֗יו יִנָּשֵֽׂאוּ׃ 13
एक और समूह ऐसा है, आंखें गर्व से चढ़ी हुई तथा उन्‍नत भौंहें;
דֹּ֤ור ׀ חֲרָבֹ֣ות שִׁנָּיו֮ וּֽמַאֲכָלֹ֪ות מְֽתַלְּעֹ֫תָ֥יו לֶאֱכֹ֣ל עֲנִיִּ֣ים מֵאֶ֑רֶץ וְ֝אֶבְיֹונִ֗ים מֵאָדָֽם׃ פ 14
कुछ वे हैं, जिनके दांत तलवार समान तथा जबड़ा चाकू समान हैं, कि पृथ्वी से उत्पीड़ितों को तथा निर्धनों को मनुष्यों के मध्य में से लेकर निगल जाएं.
לֽ͏ַעֲלוּקָ֨ה ׀ שְׁתֵּ֥י בָנֹות֮ הַ֤ב ׀ הַ֥ב שָׁלֹ֣ושׁ הֵ֭נָּה לֹ֣א תִשְׂבַּ֑עְנָה אַ֝רְבַּ֗ע לֹא־אָ֥מְרוּ הֹֽון׃ 15
“जोंक की दो बेटियां हैं. जो चिल्लाकर कहती हैं, ‘और दो! और दो!’ “तीन वस्तुएं असंतुष्ट ही रहती है, वस्तुतः चार कभी नहीं कहती, ‘अब बस करो!’:
שְׁאֹול֮ וְעֹ֪צֶ֫ר רָ֥חַם אֶ֭רֶץ לֹא־שָׂ֣בְעָה מַּ֑יִם וְ֝אֵ֗שׁ לֹא־אָ֥מְרָה הֹֽון׃ (Sheol h7585) 16
अधोलोक तथा बांझ की कोख; भूमि, जो जल से कभी तृप्‍त नहीं होती, और अग्नि, जो कभी नहीं कहती, ‘बस!’ (Sheol h7585)
עַ֤יִן ׀ תִּֽלְעַ֣ג לְאָב֮ וְתָב֪וּז לִֽיקֲּהַ֫ת־אֵ֥ם יִקְּר֥וּהָ עֹרְבֵי־נַ֑חַל וְֽיֹאכְל֥וּהָ בְנֵי־נָֽשֶׁר׃ פ 17
“वह नेत्र, जो अपने पिता का अनादर करते हैं, तथा जिसके लिए माता का आज्ञापालन घृणास्पद है, घाटी के कौवों द्वारा नोच-नोच कर निकाल लिया जाएगा, तथा गिद्धों का आहार हो जाएगा.
שְׁלֹשָׁ֣ה הֵ֭מָּה נִפְלְא֣וּ מִמֶּ֑נִּי וְאַרְבָּע (וְ֝אַרְבָּעָ֗ה) לֹ֣א יְדַעְתִּֽים׃ 18
“तीन वस्तुएं मेरे लिए अत्यंत विस्मयकारी हैं, वस्तुतः चार, जो मेरी समझ से सर्वथा परे हैं:
דֶּ֤רֶךְ הַנֶּ֨שֶׁר ׀ בַּשָּׁמַיִם֮ דֶּ֥רֶךְ נָחָ֗שׁ עֲלֵ֫י צ֥וּר דֶּֽרֶךְ־אֳנִיָּ֥ה בְלֶב־יָ֑ם וְדֶ֖רֶךְ גֶּ֣בֶר בְּעַלְמָֽה׃ 19
आकाश में गरुड़ की उड़ान, चट्टान पर सर्प का रेंगना, महासागर पर जलयान का आगे बढ़ना, तथा पुरुष और स्त्री का पारस्परिक संबंध.
כֵּ֤ן ׀ דֶּ֥רֶךְ אִשָּׁ֗ה מְנָ֫אָ֥פֶת אָ֭כְלָה וּמָ֣חֲתָה פִ֑יהָ וְ֝אָמְרָ֗ה לֹֽא־פָעַ֥לְתִּי אָֽוֶן׃ פ 20
“व्यभिचारिणी स्त्री की चाल यह होती है: संभोग के बाद वह कहती है, ‘क्या विसंगत किया है मैंने.’ मानो उसने भोजन करके अपना मुख पोंछ लिया हो.
תַּ֣חַת שָׁ֭לֹושׁ רָ֣גְזָה אֶ֑רֶץ וְתַ֥חַת אַ֝רְבַּ֗ע לֹא־תוּכַ֥ל שְׂאֵֽת׃ 21
“तीन परिस्थितियां ऐसी हैं, जिनमें पृथ्वी तक कांप उठती है; वस्तुतः चार इसे असहाय हैं:
תַּֽחַת־עֶ֭בֶד כִּ֣י יִמְלֹ֑וךְ וְ֝נָבָ֗ל כִּ֣י יִֽשְׂבַּֽע־לָֽחֶם׃ 22
दास का राजा बन जाना, मूर्ख व्यक्ति का छक कर भोजन करना,
תַּ֣חַת שְׂ֭נוּאָה כִּ֣י תִבָּעֵ֑ל וְ֝שִׁפְחָ֗ה כִּֽי־תִירַ֥שׁ גְּבִרְתָּֽהּ׃ פ 23
पूर्णतः घिनौनी स्त्री का विवाह हो जाना तथा दासी का स्वामिनी का स्थान ले लेना.
אַרְבָּ֣עָה הֵ֭ם קְטַנֵּי־אָ֑רֶץ וְ֝הֵ֗מָּה חֲכָמִ֥ים מְחֻכָּמִֽים׃ 24
“पृथ्वी पर चार प्राणी ऐसे हैं, जो आकार में तो छोटे हैं, किंतु हैं अत्यंत बुद्धिमान:
הַ֭נְּמָלִים עַ֣ם לֹא־עָ֑ז וַיָּכִ֖ינוּ בַקַּ֣יִץ לַחְמָֽם׃ 25
चीटियों की गणना सशक्त प्राणियों में नहीं की जाती, फिर भी उनकी भोजन की इच्छा ग्रीष्मकाल में भी समाप्‍त नहीं होती;
שְׁ֭פַנִּים עַ֣ם לֹא־עָצ֑וּם וַיָּשִׂ֖ימוּ בַסֶּ֣לַע בֵּיתָֽם׃ 26
चट्टानों के निवासी बिज्जू सशक्त प्राणी नहीं होते, किंतु वे अपना आश्रय चट्टानों में बना लेते हैं;
מֶ֭לֶךְ אֵ֣ין לָאַרְבֶּ֑ה וַיֵּצֵ֖א חֹצֵ֣ץ כֻּלֹּֽו׃ 27
अरबेह टिड्डियों का कोई शासक नहीं होता, फिर भी वे सैन्य दल के समान पंक्तियों में आगे बढ़ती हैं;
שְׂ֭מָמִית בְּיָדַ֣יִם תְּתַפֵּ֑שׂ וְ֝הִ֗יא בְּהֵ֣יכְלֵי מֶֽלֶךְ׃ פ 28
छिपकली, जो हाथ से पकड़े जाने योग्य लघु प्राणी है, किंतु इसका प्रवेश राजमहलों तक में होता है.
שְׁלֹשָׁ֣ה הֵ֭מָּה מֵיטִ֣יבֵי צָ֑עַד וְ֝אַרְבָּעָ֗ה מֵיטִ֥בֵי לָֽכֶת׃ 29
“तीन हैं, जिनके चलने की शैली अत्यंत भव्य है, चार की गति अत्यंत प्रभावशाली है:
לַ֭יִשׁ גִּבֹּ֣ור בַּבְּהֵמָ֑ה וְלֹא־יָ֝שׁ֗וּב מִפְּנֵי־כֹֽל׃ 30
सिंह, जो सभी प्राणियों में सबसे अधिक शक्तिमान है, वह किसी के कारण पीछे नहीं हटता;
זַרְזִ֣יר מָתְנַ֣יִם אֹו־תָ֑יִשׁ וּ֝מֶ֗לֶךְ אַלְק֥וּם עִמֹּֽו׃ 31
गर्वीली चाल चलता हुआ मुर्ग, बकरा, तथा अपनी सेना के साथ आगे बढ़ता हुआ राजा.
אִם־נָבַ֥לְתָּ בְהִתְנַשֵּׂ֑א וְאִם־זַ֝מֹּ֗ותָ יָ֣ד לְפֶֽה׃ 32
“यदि तुम आत्मप्रशंसा की मूर्खता कर बैठे हो, अथवा तुमने कोई षड़्‍यंत्र गढ़ा है, तो अपना हाथ अपने मुख पर रख लो!
כִּ֤י מִ֪יץ חָלָ֡ב יֹ֘וצִ֤יא חֶמְאָ֗ה וּֽמִיץ־אַ֭ף יֹ֣וצִיא דָ֑ם וּמִ֥יץ אַ֝פַּ֗יִם יֹ֣וצִיא רִֽיב׃ פ 33
जिस प्रकार दूध के मंथन से मक्खन तैयार होता है, और नाक पर घूंसे के प्रहार से रक्त निकलता है, उसी प्रकार क्रोध को भड़काने से कलह उत्पन्‍न होता है.”

< מִשְׁלֵי 30 >