< מִשְׁלֵי 18 >

לְֽ֭תַאֲוָה יְבַקֵּ֣שׁ נִפְרָ֑ד בְּכָל־תּ֝וּשִׁיָּ֗ה יִתְגַּלָּֽע׃ 1
जो दूसरों से अलग हो जाता है, वह अपनी ही इच्छा पूरी करने के लिये ऐसा करता है, और सब प्रकार की खरी बुद्धि से बैर करता है।
לֹֽא־יַחְפֹּ֣ץ כְּ֭סִיל בִּתְבוּנָ֑ה כִּ֝֗י אִֽם־בְּהִתְגַּלֹּ֥ות לִבֹּֽו׃ 2
मूर्ख का मन समझ की बातों में नहीं लगता, वह केवल अपने मन की बात प्रगट करना चाहता है।
בְּֽבֹוא־רָ֭שָׁע בָּ֣א גַם־בּ֑וּז וְֽעִם־קָלֹ֥ון חֶרְפָּֽה׃ 3
जहाँ दुष्टता आती, वहाँ अपमान भी आता है; और निरादर के साथ निन्दा आती है।
מַ֣יִם עֲ֭מֻקִּים דִּבְרֵ֣י פִי־אִ֑ישׁ נַ֥חַל נֹ֝בֵ֗עַ מְקֹ֣ור חָכְמָֽה׃ 4
मनुष्य के मुँह के वचन गहरे जल होते है; बुद्धि का स्रोत बहती धारा के समान हैं।
שְׂאֵ֣ת פְּנֵי־רָשָׁ֣ע לֹא־טֹ֑וב לְהַטֹּ֥ות צַ֝דִּ֗יק בַּמִּשְׁפָּֽט׃ 5
दुष्ट का पक्ष करना, और धर्मी का हक़ मारना, अच्छा नहीं है।
שִׂפְתֵ֣י כְ֭סִיל יָבֹ֣אֽוּ בְרִ֑יב וּ֝פִ֗יו לְֽמַהֲלֻמֹ֥ות יִקְרָֽא׃ 6
बात बढ़ाने से मूर्ख मुकद्दमा खड़ा करता है, और अपने को मार खाने के योग्य दिखाता है।
פִּֽי־כְ֭סִיל מְחִתָּה־לֹ֑ו וּ֝שְׂפָתָ֗יו מֹוקֵ֥שׁ נַפְשֹֽׁו׃ 7
मूर्ख का विनाश उसकी बातों से होता है, और उसके वचन उसके प्राण के लिये फंदे होते हैं।
דִּבְרֵ֣י נִ֭רְגָּן כְּמִֽתְלַהֲמִ֑ים וְ֝הֵ֗ם יָרְד֥וּ חַדְרֵי־בָֽטֶן׃ 8
कानाफूसी करनेवाले के वचन स्वादिष्ट भोजन के समान लगते हैं; वे पेट में पच जाते हैं।
גַּ֭ם מִתְרַפֶּ֣ה בִמְלַאכְתֹּ֑ו אָ֥ח ה֝֗וּא לְבַ֣עַל מַשְׁחִֽית׃ 9
जो काम में आलस करता है, वह बिगाड़नेवाले का भाई ठहरता है।
מִגְדַּל־עֹ֭ז שֵׁ֣ם יְהוָ֑ה בֹּֽו־יָר֖וּץ צַדִּ֣יק וְנִשְׂגָּֽב׃ 10
१०यहोवा का नाम दृढ़ गढ़ है; धर्मी उसमें भागकर सब दुर्घटनाओं से बचता है।
הֹ֣ון עָ֭שִׁיר קִרְיַ֣ת עֻזֹּ֑ו וּכְחֹומָ֥ה נִ֝שְׂגָּבָ֗ה בְּמַשְׂכִּיתֹֽו׃ 11
११धनी का धन उसकी दृष्टि में शक्तिशाली नगर है, और उसकी कल्पना ऊँची शहरपनाह के समान है।
לִפְנֵי־שֶׁ֭בֶר יִגְבַּ֣הּ לֵב־אִ֑ישׁ וְלִפְנֵ֖י כָבֹ֣וד עֲנָוֽ͏ָה׃ 12
१२नाश होने से पहले मनुष्य के मन में घमण्ड, और महिमा पाने से पहले नम्रता होती है।
מֵשִׁ֣יב דָּ֭בָר בְּטֶ֣רֶם יִשְׁמָ֑ע אִוֶּ֥לֶת הִיא־לֹ֝֗ו וּכְלִמָּֽה׃ 13
१३जो बिना बात सुने उत्तर देता है, वह मूर्ख ठहरता है, और उसका अनादर होता है।
רֽוּחַ־אִ֭ישׁ יְכַלְכֵּ֣ל מַחֲלֵ֑הוּ וְר֥וּחַ נְ֝כֵאָ֗ה מִ֣י יִשָּׂאֶֽנָּה׃ 14
१४रोग में मनुष्य अपनी आत्मा से सम्भलता है; परन्तु जब आत्मा हार जाती है तब इसे कौन सह सकता है?
לֵ֣ב נָ֭בֹון יִקְנֶה־דָּ֑עַת וְאֹ֥זֶן חֲ֝כָמִ֗ים תְּבַקֶּשׁ־דָּֽעַת׃ 15
१५समझवाले का मन ज्ञान प्राप्त करता है; और बुद्धिमान ज्ञान की बात की खोज में रहते हैं।
מַתָּ֣ן אָ֭דָם יַרְחִ֣יב לֹ֑ו וְלִפְנֵ֖י גְדֹלִ֣ים יַנְחֶֽנּוּ׃ 16
१६भेंट मनुष्य के लिये मार्ग खोल देती है, और उसे बड़े लोगों के सामने पहुँचाती है।
צַדִּ֣יק הָרִאשֹׁ֣ון בְּרִיבֹ֑ו יָבֹא־ (וּבָֽא)־רֵ֝עֵ֗הוּ וַחֲקָרֹֽו׃ 17
१७मुकद्दमे में जो पहले बोलता, वही सच्चा जान पड़ता है, परन्तु बाद में दूसरे पक्षवाला आकर उसे जाँच लेता है।
מִ֭דְיָנִים יַשְׁבִּ֣ית הַגֹּורָ֑ל וּבֵ֖ין עֲצוּמִ֣ים יַפְרִֽיד׃ 18
१८चिट्ठी डालने से झगड़े बन्द होते हैं, और बलवन्तों की लड़ाई का अन्त होता है।
אָ֗ח נִפְשָׁ֥ע מִקִּרְיַת־עֹ֑ז וּמְדֹונִים (וּ֝מִדְיָנִ֗ים) כִּבְרִ֥יחַ אַרְמֹֽון׃ 19
१९चिढ़े हुए भाई को मनाना दृढ़ नगर के ले लेने से कठिन होता है, और झगड़े राजभवन के बेंड़ों के समान हैं।
מִפְּרִ֣י פִי־אִ֭ישׁ תִּשְׂבַּ֣ע בִּטְנֹ֑ו תְּבוּאַ֖ת שְׂפָתָ֣יו יִשְׂבָּֽע׃ 20
२०मनुष्य का पेट मुँह की बातों के फल से भरता है; और बोलने से जो कुछ प्राप्त होता है उससे वह तृप्त होता है।
מָ֣וֶת וְ֭חַיִּים בְּיַד־לָשֹׁ֑ון וְ֝אֹהֲבֶ֗יהָ יֹאכַ֥ל פִּרְיָֽהּ׃ 21
२१जीभ के वश में मृत्यु और जीवन दोनों होते हैं, और जो उसे काम में लाना जानता है वह उसका फल भोगेगा।
מָצָ֣א אִ֭שָּׁה מָ֣צָא טֹ֑וב וַיָּ֥פֶק רָ֝צֹ֗ון מֵיְהוָֽה׃ 22
२२जिसने स्त्री ब्याह ली, उसने उत्तम पदार्थ पाया, और यहोवा का अनुग्रह उस पर हुआ है।
תַּחֲנוּנִ֥ים יְדַבֶּר־רָ֑שׁ וְ֝עָשִׁ֗יר יַעֲנֶ֥ה עַזֹּֽות׃ 23
२३निर्धन गिड़गिड़ाकर बोलता है, परन्तु धनी कड़ा उत्तर देता है।
אִ֣ישׁ רֵ֭עִים לְהִתְרֹעֵ֑עַ וְיֵ֥שׁ אֹ֝הֵ֗ב דָּבֵ֥ק מֵאָֽח׃ 24
२४मित्रों के बढ़ाने से तो नाश होता है, परन्तु ऐसा मित्र होता है, जो भाई से भी अधिक मिला रहता है।

< מִשְׁלֵי 18 >