< ١ كورنثوس 14 >
اِتْبَعُوا ٱلْمَحَبَّةَ، وَلَكِنْ جِدُّوا لِلْمَوَاهِبِ ٱلرُّوحِيَّةِ، وَبِٱلْأَوْلَى أَنْ تَتَنَبَّأُوا. | ١ 1 |
मुहब्बत के तालिब हो और रूहानी ने'मतों की भी आरज़ू रखो खुसूसन इसकी नबुव्वत करो।
لِأَنَّ مَنْ يَتَكَلَّمُ بِلِسَانٍ لَا يُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ بَلِ ٱللهَ، لِأَنْ لَيْسَ أَحَدٌ يَسْمَعُ، وَلَكِنَّهُ بِٱلرُّوحِ يَتَكَلَّمُ بِأَسْرَارٍ. | ٢ 2 |
क्यूँकि जो बेगाना ज़बान में बातें करता है वो आदमियों से बातें नहीं करता, बल्कि ख़ुदा से; इस लिए कि उसकी कोई नहीं समझता, हालाँकि वो अपनी पाक रूह के वसीले से राज़ की बातें करता है।
وَأَمَّا مَنْ يَتَنَبَّأُ، فَيُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ بِبُنْيَانٍ وَوَعْظٍ وَتَسْلِيَةٍ. | ٣ 3 |
लेकिन जो नबुव्वत करता है वो आदमियों से तरक़्क़ी और नसीहत और तसल्ली की बातें करता है।
مَنْ يَتَكَلَّمُ بِلِسَانٍ يَبْنِي نَفْسَهُ، وَأَمَّا مَنْ يَتَنَبَّأُ فَيَبْنِي ٱلْكَنِيسَةَ. | ٤ 4 |
जो बेगाना ज़बान में बातें करता है वो अपनी तरक़्क़ी करता है और जो नबुव्वत करता है वो कलीसिया की तरक़्क़ी करता है।
إِنِّي أُرِيدُ أَنَّ جَمِيعَكُمْ تَتَكَلَّمُونَ بِأَلْسِنَةٍ، وَلَكِنْ بِٱلْأَوْلَى أَنْ تَتَنَبَّأُوا. لِأَنَّ مَنْ يَتَنَبَّأُ أَعْظَمُ مِمَّنْ يَتَكَلَّمُ بِأَلْسِنَةٍ، إِلَّا إِذَا تَرْجَمَ، حَتَّى تَنَالَ ٱلْكَنِيسَةُ بُنْيَانًا. | ٥ 5 |
अगरचे मैं ये चाहता हूँ कि तुम सब बेगाना ज़बान में बातें करो, लेकिन ज़्यादा तर यही चाहता हूँ कि नबुव्वत करो; और अगर बेगाना ज़बाने बोलने वाला कलीसिया की तरक़्क़ी के लिए तर्जुमा न करे, तो नबुव्वत करने वाला उससे बड़ा है।
فَٱلْآنَ أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ، إِنْ جِئْتُ إِلَيْكُمْ مُتَكَلِّمًا بِأَلْسِنَةٍ، فَمَاذَا أَنْفَعُكُمْ، إِنْ لَمْ أُكَلِّمْكُمْ إِمَّا بِإِعْلَانٍ، أَوْ بِعِلْمٍ، أَوْ بِنُبُوَّةٍ، أَوْ بِتَعْلِيمٍ؟ | ٦ 6 |
पस ऐ भाइयों! अगर मैं तुम्हारे पास आकर बेगाना ज़बानों में बातें करूँ और मुक़ाशिफ़ा या इल्म या नबुव्वत या ता'लीम की बातें तुम से न कहूँ; तो तुम को मुझ से क्या फ़ाइदा होगा?
اَلْأَشْيَاءُ ٱلْعَادِمَةُ ٱلنُّفُوسِ ٱلَّتِي تُعْطِي صَوْتًا: مِزْمَارٌ أَوْ قِيثَارَةٌ، مَعَ ذَلِكَ إِنْ لَمْ تُعْطِ فَرْقًا لِلنَّغَمَاتِ، فَكَيْفَ يُعْرَفُ مَا زُمِّرَ أَوْ مَا عُزِفَ بِهِ؟ | ٧ 7 |
चुनाँचे बे'जान चीज़ों में से भी जिन से आवाज़ निकलती है, मसलन बाँसुरी या बरबत अगर उनकी आवाज़ों में फ़र्क़ न हो तो जो फूँका या बजाए जाता है वो क्यूँकर पहचाना जाए?
فَإِنَّهُ إِنْ أَعْطَى ٱلْبُوقُ أَيْضًا صَوْتًا غَيْرَ وَاضِحٍ، فَمَنْ يَتَهَيَّأُ لِلْقِتَالِ؟ | ٨ 8 |
और अगर तुरही की आवाज़ साफ़ न हो तो कौन लड़ाई के लिए तैयारी करेगा?
هَكَذَا أَنْتُمْ أَيْضًا إِنْ لَمْ تُعْطُوا بِٱللِّسَانِ كَلَامًا يُفْهَمُ، فَكَيْفَ يُعْرَفُ مَا تُكُلِّمَ بِهِ؟ فَإِنَّكُمْ تَكُونُونَ تَتَكَلَّمُونَ فِي ٱلْهَوَاءِ! | ٩ 9 |
ऐसे ही तुम भी अगर ज़बान से कुछ बात न कहो तो जो कहा जाता है क्यूँकर समझा जाएगा? तुम हवा से बातें करनेवाले ठहरोगे।
رُبَّمَا تَكُونُ أَنْوَاعُ لُغَاتٍ هَذَا عَدَدُهَا فِي ٱلْعَالَمِ، وَلَيْسَ شَيْءٌ مِنْهَا بِلَا مَعْنًى. | ١٠ 10 |
दुनिया में चाहे कितनी ही मुख़्तलिफ़ ज़बाने हों उन में से कोई भी बे'मानी न होगी।
فَإِنْ كُنْتُ لَا أَعْرِفُ قُوَّةَ ٱللُّغَةِ أَكُونُ عِنْدَ ٱلْمُتَكَلِّمِ أَعْجَمِيًّا، وَٱلْمُتَكَلِّمُ أَعْجَمِيًّا عِنْدِي. | ١١ 11 |
पस अगर मैं किसी ज़बान के मा' ने ना समझूँ, तो बोलने वाले के नज़दीक मैं अजनबी ठहरूँगा और बोलने वाला मेरे नज़दीक अजनबी ठहरेगा।
هَكَذَا أَنْتُمْ أَيْضًا، إِذْ إِنَّكُمْ غَيُورُونَ لِلْمَوَاهِبِ ٱلرُّوحِيَّةِ، ٱطْلُبُوا لِأَجْلِ بُنْيَانِ ٱلْكَنِيسَةِ أَنْ تَزْدَادُوا. | ١٢ 12 |
पस जब तुम रूहानी नेअ'मतों की आरज़ू रखते हो तो ऐसी कोशिश करो, कि तुम्हारी नेअ'मतों की अफ़ज़ूनी से कलीसिया की तरक़्क़ी हो।
لِذَلِكَ مَنْ يَتَكَلَّمُ بِلِسَانٍ فَلْيُصَلِّ لِكَيْ يُتَرْجِمَ. | ١٣ 13 |
इस वजह से जो बेगाना ज़बान से बातें करता है वो दुआ करे कि तर्जुमा भी कर सके।
لِأَنَّهُ إِنْ كُنْتُ أُصَلِّي بِلِسَانٍ، فَرُوحِي تُصَلِّي، وَأَمَّا ذِهْنِي فَهُوَ بِلَا ثَمَرٍ. | ١٤ 14 |
इसलिए कि अगर मैं किसी बेगाना ज़बान में दुआ करूँ तो मेरी रूह तो दुआ करती है मगर मेरी अक़्ल बेकार है।
فَمَا هُوَ إِذًا؟ أُصَلِّي بِٱلرُّوحِ، وَأُصَلِّي بِٱلذِّهْنِ أَيْضًا. أُرَتِّلُ بِٱلرُّوحِ، وَأُرَتِّلُ بِٱلذِّهْنِ أَيْضًا. | ١٥ 15 |
पस क्या करना चाहिए? मैं रूह से भी दुआ करूँगा और अक़्ल से भी दुआ करूँगा; रूह से भी गाऊँगा और अक़्ल से भी गाऊँगा।
وَإِلَّا فَإِنْ بَارَكْتَ بِٱلرُّوحِ، فَٱلَّذِي يُشْغِلُ مَكَانَ ٱلْعَامِّيِّ، كَيْفَ يَقُولُ: «آمِينَ» عِنْدَ شُكْرِكَ؟ لِأَنَّهُ لَا يَعْرِفُ مَاذَا تَقُولُ! | ١٦ 16 |
वर्ना अगर तू रूह ही से हम्द करेगा तो नावाक़िफ़ आदमी तेरी शुक्र गुज़ारी पर “आमीन” क्यूँकर कहेगा? इस लिए कि वो नहीं जानता कि तू क्या कहता है।
فَإِنَّكَ أَنْتَ تَشْكُرُ حَسَنًا، وَلَكِنَّ ٱلْآخَرَ لَا يُبْنَى. | ١٧ 17 |
तू तो बेशक अच्छी तरह से शुक्र करता है, मगर दूसरे की तरक़्क़ी नहीं होती।
أَشْكُرُ إِلَهِي أَنِّي أَتَكَلَّمُ بِأَلْسِنَةٍ أَكْثَرَ مِنْ جَمِيعِكُمْ. | ١٨ 18 |
मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ, कि तुम सब से ज़्यादा ज़बाने बोलता हूँ।
وَلَكِنْ، فِي كَنِيسَةٍ، أُرِيدُ أَنْ أَتَكَلَّمَ خَمْسَ كَلِمَاتٍ بِذِهْنِي لِكَيْ أُعَلِّمَ آخَرِينَ أَيْضًا، أَكْثَرَ مِنْ عَشْرَةِ آلَافِ كَلِمَةٍ بِلِسَانٍ. | ١٩ 19 |
लेकिन कलीसिया में बेगाना ज़बान में दस हज़ार बातें करने से मुझे ये ज़्यादा पसन्द है, कि औरों की ता'लीम के लिए पाँच ही बातें अक़्ल से कहूँ।
أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ، لَا تَكُونُوا أَوْلَادًا فِي أَذْهَانِكُمْ، بَلْ كُونُوا أَوْلَادًا فِي ٱلشَّرِّ، وَأَمَّا فِي ٱلْأَذْهَانِ فَكُونُوا كَامِلِينَ. | ٢٠ 20 |
ऐ भाइयों! तुम समझ में बच्चे न बनो; बदी में बच्चे रहो, मगर समझ में जवान बनो।
مَكْتُوبٌ فِي ٱلنَّامُوسِ: «إِنِّي بِذَوِي أَلْسِنَةٍ أُخْرَى وَبِشِفَاهٍ أُخْرَى سَأُكَلِّمُ هَذَا ٱلشَّعْبَ، وَلَا هَكَذَا يَسْمَعُونَ لِي، يَقُولُ ٱلرَّبُّ». | ٢١ 21 |
पाक कलाम में लिखा है ख़ुदावन्द फ़रमाता है, “मैं बेगाना ज़बान और बेगाना होंटों से इस उम्मत से बातें करूँगा तोभी वो मेरी न सुनेंगे।”
إِذًا ٱلْأَلْسِنَةُ آيَةٌ، لَا لِلْمُؤْمِنِينَ، بَلْ لِغَيْرِ ٱلْمُؤْمِنِينَ. أَمَّا ٱلنُّبُوَّةُ فَلَيْسَتْ لِغَيْرِ ٱلْمُؤْمِنِينَ، بَلْ لِلْمُؤْمِنِينَ. | ٢٢ 22 |
पस बेगाना ज़बाने ईमानदारों के लिए नहीं बल्कि बे'ईमानों के लिए निशान हैं और नबुव्वत बे'ईमानों के लिए नहीं, बल्कि ईमानदारों के लिए निशान है।
فَإِنِ ٱجْتَمَعَتِ ٱلْكَنِيسَةُ كُلُّهَا فِي مَكَانٍ وَاحِدٍ، وَكَانَ ٱلْجَمِيعُ يَتَكَلَّمُونَ بِأَلْسِنَةٍ، فَدَخَلَ عَامِّيُّونَ أَوْ غَيْرُ مُؤْمِنِينَ، أَفَلَا يَقُولُونَ إِنَّكُمْ تَهْذُونَ؟ | ٢٣ 23 |
पस अगर सारी कलीसिया एक जगह जमा हो और सब के सब बेगाना ज़बाने बोलें और नावाक़िफ़ या बे'ईमान लोग अन्दर आ जाएँ, तो क्या वो तुम को दिवाना न कहेंगे।
وَلَكِنْ إِنْ كَانَ ٱلْجَمِيعُ يَتَنَبَّأُونَ، فَدَخَلَ أَحَدٌ غَيْرُ مُؤْمِنٍ أَوْ عَامِّيٌّ، فَإِنَّهُ يُوَبَّخُ مِنَ ٱلْجَمِيعِ. يُحْكَمُ عَلَيْهِ مِنَ ٱلْجَمِيعِ. | ٢٤ 24 |
लेकिन अगर जब नबुव्वत करें और कोई बे'ईमान या नावाक़िफ़ अन्दर आ जाए, तो सब उसे क़ायल कर देंगे और सब उसे परख लेंगे;
وَهَكَذَا تَصِيرُ خَفَايَا قَلْبِهِ ظَاهِرَةً. وَهَكَذَا يَخِرُّ عَلَى وَجْهِهِ وَيَسْجُدُ لِلهِ، مُنَادِيًا: أَنَّ ٱللهَ بِٱلْحَقِيقَةِ فِيكُمْ. | ٢٥ 25 |
और उसके दिल के राज़ ज़ाहिर हो जाएँगे; तब वो मुँह के बल गिर कर सज्दा करेगा, और इक़रार करेगा कि बेशक ख़ुदा तुम में है।
فَمَا هُوَ إِذًا أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ؟ مَتَى ٱجْتَمَعْتُمْ فَكُلُّ وَاحِدٍ مِنْكُمْ لَهُ مَزْمُورٌ، لَهُ تَعْلِيمٌ، لَهُ لِسَانٌ، لَهُ إِعْلَانٌ، لَهُ تَرْجَمَةٌ. فَلْيَكُنْ كُلُّ شَيْءٍ لِلْبُنْيَانِ. | ٢٦ 26 |
पस ऐ भाइयों! क्या करना चाहिए? जब तुम जमा होते हो, तो हर एक के दिल में मज़्मूर या ता'लीम या मुक़ाशिफ़ा, या बेगाना, ज़बान या तर्जुमा होता है; सब कुछ रूहानी तरक़्क़ी के लिए होना चाहिए।
إِنْ كَانَ أَحَدٌ يَتَكَلَّمُ بِلِسَانٍ، فَٱثْنَيْنِ ٱثْنَيْنِ، أَوْ عَلَى ٱلْأَكْثَرِ ثَلَاثَةً ثَلَاثَةً، وَبِتَرْتِيبٍ،وَلْيُتَرْجِمْ وَاحِدٌ. | ٢٧ 27 |
अगर बेगाना ज़बान में बातें करना हो तो दो दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन तीन शख़्स बारी बारी से बोलें और एक शख़्स तर्जुमा करे।
وَلَكِنْ إِنْ لَمْ يَكُنْ مُتَرْجِمٌ فَلْيَصْمُتْ فِي ٱلْكَنِيسَةِ، وَلْيُكَلِّمْ نَفْسَهُ وَٱللهَ. | ٢٨ 28 |
और अगर कोई तर्जुमा करने वाला न हो तो बेगाना ज़बान बोलनेवाला कलीसिया में चुप रहे और अपने दिल से और ख़ुदा से बातें करे।
أَمَّا ٱلْأَنْبِيَاءُ فَلْيَتَكَلَّمِ ٱثْنَانِ أَوْ ثَلَاثَةٌ، وَلْيَحْكُمِ ٱلْآخَرُونَ. | ٢٩ 29 |
नबियों में से दो या तीन बोलें और बाक़ी उनके कलाम को परखें।
وَلَكِنْ إِنْ أُعْلِنَ لِآخَرَ جَالِسٍ فَلْيَسْكُتِ ٱلْأَوَّلُ. | ٣٠ 30 |
लेकिन अगर दूसरे पास बैठने वाले पर वही उतरे तो पहला ख़ामोश हो जाए।
لِأَنَّكُمْ تَقْدِرُونَ جَمِيعُكُمْ أَنْ تَتَنَبَّأُوا وَاحِدًا وَاحِدًا، لِيَتَعَلَّمَ ٱلْجَمِيعُ وَيَتَعَزَّى ٱلْجَمِيعُ. | ٣١ 31 |
क्यूँकि तुम सब के सब एक एक करके नबुव्वत करते हो, ताकि सब सीखें और सब को नसीहत हो।
وَأَرْوَاحُ ٱلْأَنْبِيَاءِ خَاضِعَةٌ لِلْأَنْبِيَاءِ. | ٣٢ 32 |
और नबियों की रूहें नबियों के ताबे हैं।
لِأَنَّ ٱللهَ لَيْسَ إِلَهَ تَشْوِيشٍ بَلْ إِلَهُ سَلَامٍ. كَمَا فِي جَمِيعِ كَنَائِسِ ٱلْقِدِّيسِينَ، | ٣٣ 33 |
क्यूँकि ख़ुदा अबतरी का नहीं, बल्कि सुकून का बानी है जैसा मुक़द्दसों की सब कलीसियाओं में है।
لِتَصْمُتْ نِسَاؤُكُمْ فِي ٱلْكَنَائِسِ، لِأَنَّهُ لَيْسَ مَأْذُونًا لَهُنَّ أَنْ يَتَكَلَّمْنَ، بَلْ يَخْضَعْنَ كَمَا يَقُولُ ٱلنَّامُوسُ أَيْضًا. | ٣٤ 34 |
औरतें कलीसिया के मज्मे में ख़ामोश रहें, क्यूँकि उन्हें बोलने का हुक्म नहीं बल्कि ताबे रहें जैसा तौरेत में भी लिखा है।
وَلَكِنْ إِنْ كُنَّ يُرِدْنَ أَنْ يَتَعَلَّمْنَ شَيْئًا، فَلْيَسْأَلْنَ رِجَالَهُنَّ فِي ٱلْبَيْتِ، لِأَنَّهُ قَبِيحٌ بِٱلنِّسَاءِ أَنْ تَتَكَلَّمَ فِي كَنِيسَةٍ. | ٣٥ 35 |
और अगर कुछ सीखना चाहें तो घर में अपने अपने शौहर से पूछें, क्यूँकि औरत का कलीसिया के मज्मे में बोलना शर्म की बात है।
أَمْ مِنْكُمْ خَرَجَتْ كَلِمَةُ ٱللهِ؟ أَمْ إِلَيْكُمْ وَحْدَكُمُ ٱنْتَهَتْ؟ | ٣٦ 36 |
क्या ख़ुदा का कलाम तुम में से निकला या सिर्फ़ तुम ही तक पहुँचा है।
إِنْ كَانَ أَحَدٌ يَحْسِبُ نَفْسَهُ نَبِيًّا أَوْ رُوحِيًّا، فَلْيَعْلَمْ مَا أَكْتُبُهُ إِلَيْكُمْ أَنَّهُ وَصَايَا ٱلرَّبِّ. | ٣٧ 37 |
अगर कोई अपने आपको नबी या रूहानी समझे तो ये जान ले कि जो बातें मैं तुम्हें लिखता हूँ वो ख़ुदावन्द के हुक्म हैं।
وَلَكِنْ إِنْ يَجْهَلْ أَحَدٌ، فَلْيَجْهَلْ! | ٣٨ 38 |
और अगर कोई न जाने तो न जानें।
إِذًا أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ جِدُّوا لِلتَّنَبُّؤِ، وَلَا تَمْنَعُوا ٱلتَّكَلُّمَ بِأَلْسِنَةٍ. | ٣٩ 39 |
पस ऐ भाइयों! नबुव्वत करने की आरज़ू रख्खो और ज़बाने बोलने से मनह न करो।
وَلْيَكُنْ كُلُّ شَيْءٍ بِلِيَاقَةٍ وَبِحَسَبِ تَرْتِيبٍ. | ٤٠ 40 |
मगर सब बातें शाइस्तगी और क़रीने के साथ अमल में लाएँ।