< رُوما 12 >
فَأَطْلُبُ إِلَيْكُمْ أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ بِرَأْفَةِ ٱللهِ أَنْ تُقَدِّمُوا أَجْسَادَكُمْ ذَبِيحَةً حَيَّةً مُقَدَّسَةً مَرْضِيَّةً عِنْدَ ٱللهِ، عِبَادَتَكُمُ ٱلْعَقْلِيَّةَ. | ١ 1 |
ऐ भाइयों! मैं ख़ुदा की रहमतें याद दिला कर तुम से गुज़ारिश करता हूँ कि अपने बदन ऐसी क़ुर्बानी होने के लिए पेश करो जो ज़िन्दा और पाक और ख़ुदा को पसन्दीदा हो यही तुम्हारी मा'क़ूल इबादत है।
وَلَا تُشَاكِلُوا هَذَا ٱلدَّهْرَ، بَلْ تَغَيَّرُوا عَنْ شَكْلِكُمْ بِتَجْدِيدِ أَذْهَانِكُمْ، لِتَخْتَبِرُوا مَا هِيَ إِرَادَةُ ٱللهِ: ٱلصَّالِحَةُ ٱلْمَرْضِيَّةُ ٱلْكَامِلَةُ. (aiōn ) | ٢ 2 |
और इस जहान के हमशक्ल न बनो बल्कि अक़्ल नई हो जाने से अपनी सूरत बदलते जाओ ताकि ख़ुदा की नेक और पसन्दीदा और कामिल मर्ज़ी को तजुर्बा से मा'लूम करते रहो। (aiōn )
فَإِنِّي أَقُولُ بِٱلنِّعْمَةِ ٱلْمُعْطَاةِ لِي، لِكُلِّ مَنْ هُوَ بَيْنَكُمْ: أَنْ لَا يَرْتَئِيَ فَوْقَ مَا يَنْبَغِي أَنْ يَرْتَئِيَ، بَلْ يَرْتَئِيَ إِلَى ٱلتَّعَقُّلِ، كَمَا قَسَمَ ٱللهُ لِكُلِّ وَاحِدٍ مِقْدَارًا مِنَ ٱلْإِيمَانِ. | ٣ 3 |
मैं उस तौफ़ीक़ की वजह से जो मुझ को मिली है तुम में से हर एक से कहता हूँ, कि जैसा समझना चाहिए उससे ज़्यादा कोई अपने आपको न समझे बल्कि जैसा ख़ुदा ने हर एक को अन्दाज़े के मुवाफ़िक़ ईमान तक़्सीम किया है ऐ'तिदाल के साथ अपने आप को वैसा ही समझे।
فَإِنَّهُ كَمَا فِي جَسَدٍ وَاحِدٍ لَنَا أَعْضَاءٌ كَثِيرَةٌ، وَلَكِنْ لَيْسَ جَمِيعُ ٱلْأَعْضَاءِ لَهَا عَمَلٌ وَاحِدٌ، | ٤ 4 |
क्यूँकि जिस तरह हमारे एक बदन में बहुत से आ'ज़ा होते हैं और तमाम आ'ज़ा का काम एक जैसा नहीं।
هَكَذَا نَحْنُ ٱلْكَثِيرِينَ: جَسَدٌ وَاحِدٌ فِي ٱلْمَسِيحِ، وَأَعْضَاءٌ بَعْضًا لِبَعْضٍ، كُلُّ وَاحِدٍ لِلْآخَرِ. | ٥ 5 |
उसी तरह हम भी जो बहुत से हैं मसीह में शामिल होकर एक बदन हैं और आपस में एक दूसरे के आ'ज़ा।
وَلَكِنْ لَنَا مَوَاهِبُ مُخْتَلِفَةٌ بِحَسَبِ ٱلنِّعْمَةِ ٱلْمُعْطَاةِ لَنَا: أَنُبُوَّةٌ فَبِٱلنِّسْبَةِ إِلَى ٱلْإِيمَانِ، | ٦ 6 |
और चूँकि उस तौफ़ीक़ के मुवाफ़िक़ जो हम को दी गई; हमें तरह तरह की ने'अमतें मिली इसलिए जिस को नबुव्वत मिली हो वो ईमान के अन्दाज़े के मुवाफ़िक़ नबुव्वत करें।
أَمْ خِدْمَةٌ فَفِي ٱلْخِدْمَةِ، أَمِ ٱلْمُعَلِّمُ فَفِي ٱلتَّعْلِيمِ، | ٧ 7 |
अगर ख़िदमत मिली हो तो ख़िदमत में लगा रहे अगर कोई मुअल्लिम हो तो ता'लीम में मश्ग़ूल हो।
أَمِ ٱلْوَاعِظُ فَفِي ٱلْوَعْظِ، ٱلْمُعْطِي فَبِسَخَاءٍ، ٱلْمُدَبِّرُ فَبِٱجْتِهَادٍ، ٱلرَّاحِمُ فَبِسُرُورٍ. | ٨ 8 |
और अगर नासेह हो तो नसीहत में, ख़ैरात बाँटने वाला सख़ावत से बाँटे, पेशवा सरगर्मी से पेशवाई करे, रहम करने वाला ख़ुशी से रहम करे।
اَلْمَحَبَّةُ فَلْتَكُنْ بِلَا رِيَاءٍ. كُونُوا كَارِهِينَ ٱلشَّرَّ، مُلْتَصِقِينَ بِٱلْخَيْرِ. | ٩ 9 |
मुहब्बत बे 'रिया हो बदी से नफ़रत रक्खो नेकी से लिपटे रहो।
وَادِّينَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا بِٱلْمَحَبَّةِ ٱلْأَخَوِيَّةِ، مُقَدِّمِينَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا فِي ٱلْكَرَامَةِ. | ١٠ 10 |
बिरादराना मुहब्बत से आपस में एक दूसरे को प्यार करो इज़्ज़त के ऐतबार से एक दूसरे को बेहतर समझो।
غَيْرَ مُتَكَاسِلِينَ فِي ٱلِٱجْتِهَادِ، حَارِّينَ فِي ٱلرُّوحِ، عَابِدِينَ ٱلرَّبَّ، | ١١ 11 |
कोशिश में सुस्ती न करो रूहानी जोश में भरे रहो; ख़ुदावन्द की ख़िदमत करते रहो।
فَرِحِينَ فِي ٱلرَّجَاءِ، صَابِرِينَ فِي ٱلضِّيْقِ، مُواظِبِينَ عَلَى ٱلصَّلَاةِ، | ١٢ 12 |
उम्मीद में ख़ुश मुसीबत में साबिर दुआ करने में मशग़ूल रहो।
مُشْتَرِكِينَ فِي ٱحْتِيَاجَاتِ ٱلْقِدِّيسِينَ، عَاكِفِينَ عَلَى إِضَافَةِ ٱلْغُرَبَاءِ. | ١٣ 13 |
मुक़द्दसों की ज़रूरतें पूरी करो।
بَارِكُوا عَلَى ٱلَّذِينَ يَضْطَهِدُونَكُمْ. بَارِكُوا وَلَا تَلْعَنُوا. | ١٤ 14 |
जो तुम्हें सताते हैं उनके वास्ते बर्क़त चाहो ला'नत न करो।
فَرَحًا مَعَ ٱلْفَرِحِينَ وَبُكَاءً مَعَ ٱلْبَاكِينَ. | ١٥ 15 |
ख़ुशी करनेवालों के साथ ख़ुशी करो रोने वालों के साथ रोओ।
مُهْتَمِّينَ بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ ٱهْتِمَامًا وَاحِدًا، غَيْرَ مُهْتَمِّينَ بِٱلْأُمُورِ ٱلْعَالِيَةِ بَلْ مُنْقَادِينَ إِلَى ٱلْمُتَّضِعِينَ. لَا تَكُونُوا حُكَمَاءَ عِنْدَ أَنْفُسِكُمْ. | ١٦ 16 |
आपस में एक दिल रहो ऊँचे ऊँचे ख़याल न बाँधो बल्कि छोटे लोगों से रिफ़ाक़त रखो अपने आप को अक़्लमन्द न समझो।
لَا تُجَازُوا أَحَدًا عَنْ شَرٍّ بِشَرٍّ. مُعْتَنِينَ بِأُمُورٍ حَسَنَةٍ قُدَّامَ جَمِيعِ ٱلنَّاسِ. | ١٧ 17 |
बदी के बदले किसी से बदी न करो; जो बातें सब लोगों के नज़दीक अच्छी हैं उनकी तदबीर करो।
إِنْ كَانَ مُمْكِنًا فَحَسَبَ طَاقَتِكُمْ سَالِمُوا جَمِيعَ ٱلنَّاسِ. | ١٨ 18 |
जहाँ तक हो सके तुम अपनी तरफ़ से सब आदमियों के साथ मेल मिलाप रख्खो।
لَا تَنْتَقِمُوا لِأَنْفُسِكُمْ أَيُّهَا ٱلْأَحِبَّاءُ، بَلْ أَعْطُوا مَكَانًا لِلْغَضَبِ، لِأَنَّهُ مَكْتُوبٌ: «لِيَ ٱلنَّقْمَةُ أَنَا أُجَازِي، يَقُولُ ٱلرَّبُّ». | ١٩ 19 |
“ऐ' अज़ीज़ो! अपना इन्तक़ाम न लो बल्कि ग़ज़ब को मौक़ा दो क्यूँकि ये लिखा है ख़ुदावन्द फ़रमाता है इन्तिक़ाम लेना मेरा काम है बदला मैं ही दूँगा।”
«فَإِنْ جَاعَ عَدُوُّكَ فَأَطْعِمْهُ. وَإِنْ عَطِشَ فَٱسْقِهِ. لِأَنَّكَ إِنْ فَعَلْتَ هَذَا تَجْمَعْ جَمْرَ نَارٍ عَلَى رَأْسِهِ». | ٢٠ 20 |
बल्कि अगर तेरा दुश्मन भूखा हो तो उस को खाना खिला “अगर प्यासा हो तो उसे पानी पिला क्यूँकि ऐसा करने से तू उसके सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा।”
لَا يَغْلِبَنَّكَ ٱلشَّرُّ بَلِ ٱغْلِبِ ٱلشَّرَّ بِٱلْخَيْرِ. | ٢١ 21 |
बदी से मग़लूब न हो बल्कि नेकी के ज़रिए से बदी पर ग़ालिब आओ।