< أَيُّوبَ 16 >

فَأَجَابَ أَيُّوبُ وَقَالَ: ١ 1
तब अय्यूब ने कहा,
«قَدْ سَمِعْتُ كَثِيرًا مِثْلَ هَذَا. مُعَزُّونَ مُتْعِبُونَ كُلُّكُمْ! ٢ 2
“ऐसी बहुत सी बातें मैं सुन चुका हूँ, तुम सब के सब निकम्मे शान्तिदाता हो।
هَلْ مِنْ نِهَايَةٍ لِكَلَامٍ فَارِغٍ؟ أَوْ مَاذَا يُهَيِّجُكَ حَتَّى تُجَاوِبَ؟ ٣ 3
क्या व्यर्थ बातों का अन्त कभी होगा? तू कौन सी बात से झिड़ककर ऐसे उत्तर देता है?
أَنَا أَيْضًا أَسْتَطِيعُ أَنْ أَتَكَلَّمَ مِثْلَكُمْ، لَوْ كَانَتْ أَنْفُسُكُمْ مَكَانَ نَفْسِي، وَأَنْ أَسْرُدَ عَلَيْكُمْ أَقْوَالًا وَأُنْغِضَ رَأْسِي إِلَيْكُمْ. ٤ 4
यदि तुम्हारी दशा मेरी सी होती, तो मैं भी तुम्हारी सी बातें कर सकता; मैं भी तुम्हारे विरुद्ध बातें जोड़ सकता, और तुम्हारे विरुद्ध सिर हिला सकता।
بَلْ كُنْتُ أُشَدِّدُكُمْ بِفَمِي، وَتَعْزِيَةُ شَفَتَيَّ تُمْسِكُكُمْ. ٥ 5
वरन् मैं अपने वचनों से तुम को हियाव दिलाता, और बातों से शान्ति देकर तुम्हारा शोक घटा देता।
«إِنْ تَكَلَّمْتُ لَمْ تَمْتَنِعْ كَآبَتِي، وَإِنْ سَكَتُّ فَمَاذَا يَذْهَبُ عَنِّي؟ ٦ 6
“चाहे मैं बोलूँ तो भी मेरा शोक न घटेगा, चाहे मैं चुप रहूँ, तो भी मेरा दुःख कुछ कम न होगा।
إِنَّهُ ٱلْآنَ ضَجَّرَنِي. خَرَّبْتَ كُلَّ جَمَاعَتِي. ٧ 7
परन्तु अब उसने मुझे थका दिया है; उसने मेरे सारे परिवार को उजाड़ डाला है।
قَبَضْتَ عَلَيَّ. وُجِدَ شَاهِدٌ. قَامَ عَلَيَّ هُزَالِي يُجَاوِبُ فِي وَجْهِي. ٨ 8
और उसने जो मेरे शरीर को सूखा डाला है, वह मेरे विरुद्ध साक्षी ठहरा है, और मेरा दुबलापन मेरे विरुद्ध खड़ा होकर मेरे सामने साक्षी देता है।
غَضَبُهُ ٱفْتَرَسَنِي وَٱضْطَهَدَنِي. حَرَقَ عَلَيَّ أَسْنَانَهُ. عَدُوِّي يُحَدِّدُ عَيْنَيْهِ عَلَيَّ. ٩ 9
उसने क्रोध में आकर मुझ को फाड़ा और मेरे पीछे पड़ा है; वह मेरे विरुद्ध दाँत पीसता; और मेरा बैरी मुझ को आँखें दिखाता है।
فَغَرُوا عَلَيَّ أَفْوَاهَهُمْ. لَطَمُونِي عَلَى فَكِّي تَعْيِيرًا. تَعَاوَنُوا عَلَيَّ جَمِيعًا. ١٠ 10
१०अब लोग मुझ पर मुँह पसारते हैं, और मेरी नामधराई करके मेरे गाल पर थप्पड़ मारते, और मेरे विरुद्ध भीड़ लगाते हैं।
دَفَعَنِيَ ٱللهُ إِلَى ٱلظَّالِمِ، وَفِي أَيْدِي ٱلْأَشْرَارِ طَرَحَنِي. ١١ 11
११परमेश्वर ने मुझे कुटिलों के वश में कर दिया, और दुष्ट लोगों के हाथ में फेंक दिया है।
كُنْتُ مُسْتَرِيحًا فَزَعْزَعَنِي، وَأَمْسَكَ بِقَفَايَ فَحَطَّمَنِي، وَنَصَبَنِي لَهُ غَرَضًا. ١٢ 12
१२मैं सुख से रहता था, और उसने मुझे चूर चूरकर डाला; उसने मेरी गर्दन पकड़कर मुझे टुकड़े-टुकड़े कर दिया; फिर उसने मुझे अपना निशाना बनाकर खड़ा किया है।
أَحَاطَتْ بِي رُمَاتُهُ. شَقَّ كُلْيَتَيَّ وَلَمْ يُشْفِقْ. سَفَكَ مَرَارَتِي عَلَى ٱلْأَرْضِ. ١٣ 13
१३उसके तीर मेरे चारों ओर उड़ रहे हैं, वह निर्दय होकर मेरे गुर्दों को बेधता है, और मेरा पित्त भूमि पर बहाता है।
يَقْتَحِمُنِي ٱقْتِحَامًا عَلَى ٱقْتِحَامٍ. يَعْدُو عَلَيَّ كَجَبَّارٍ. ١٤ 14
१४वह शूर के समान मुझ पर धावा करके मुझे चोट पर चोट पहुँचाकर घायल करता है।
خِطْتُ مِسْحًا عَلَى جِلْدِي، وَدَسَسْتُ فِي ٱلتُّرَابِ قَرْنِي. ١٥ 15
१५मैंने अपनी खाल पर टाट को सी लिया है, और अपना बल मिट्टी में मिला दिया है।
اِحْمَرَّ وَجْهِي مِنَ ٱلْبُكَاءِ، وَعَلَى هُدْبِي ظِلُّ ٱلْمَوْتِ. ١٦ 16
१६रोते-रोते मेरा मुँह सूज गया है, और मेरी आँखों पर घोर अंधकार छा गया है;
مَعَ أَنَّهُ لَا ظُلْمَ فِي يَدِي، وَصَلَاتِي خَالِصَةٌ. ١٧ 17
१७तो भी मुझसे कोई उपद्रव नहीं हुआ है, और मेरी प्रार्थना पवित्र है।
«يَا أَرْضُ لَا تُغَطِّي دَمِي، وَلَا يَكُنْ مَكَانٌ لِصُرَاخِي. ١٨ 18
१८“हे पृथ्वी, तू मेरे लहू को न ढाँपना, और मेरी दुहाई कहीं न रुके।
أَيْضًا ٱلْآنَ هُوَذَا فِي ٱلسَّمَاوَاتِ شَهِيدِي، وَشَاهِدِي فِي ٱلْأَعَالِي. ١٩ 19
१९अब भी स्वर्ग में मेरा साक्षी है, और मेरा गवाह ऊपर है।
ٱلْمُسْتَهْزِئُونَ بِي هُمْ أَصْحَابِي. لِلهِ تَقْطُرُ عَيْنِي ٢٠ 20
२०मेरे मित्र मुझसे घृणा करते हैं, परन्तु मैं परमेश्वर के सामने आँसू बहाता हूँ,
لِكَيْ يُحَاكِمَ ٱلْإِنْسَانَ عِنْدَ ٱللهِ كَٱبْنِ آدَمَ لَدَى صَاحِبِهِ. ٢١ 21
२१कि कोई परमेश्वर के सामने सज्जन का, और आदमी का मुकद्दमा उसके पड़ोसी के विरुद्ध लड़े।
إِذَا مَضَتْ سِنُونَ قَلِيلَةٌ أَسْلُكُ فِي طَرِيقٍ لَا أَعُودُ مِنْهَا. ٢٢ 22
२२क्योंकि थोड़े ही वर्षों के बीतने पर मैं उस मार्ग से चला जाऊँगा, जिससे मैं फिर वापिस न लौटूँगा।

< أَيُّوبَ 16 >