< ١ كورنثوس 12 >

وَأَمَّا مِنْ جِهَةِ ٱلْمَوَاهِبِ ٱلرُّوحِيَّةِ أَيُّهَا ٱلْإِخْوَةُ، فَلَسْتُ أُرِيدُ أَنْ تَجْهَلُوا. ١ 1
ऐ भाइयों! मैं नहीं चाहता कि तुम पाक रूह की ने'मतों के बारे में बेख़बर रहो।
أَنْتُمْ تَعْلَمُونَ أَنَّكُمْ كُنْتُمْ أُمَمًا مُنْقَادِينَ إِلَى ٱلْأَوْثَانِ ٱلْبُكْمِ، كَمَا كُنْتُمْ تُسَاقُونَ. ٢ 2
तुम जानते हो कि जब तुम ग़ैर क़ौम थे, तो गूँगे बुतों के पीछे जिस तरह कोई तुम को ले जाता था; उसी तरह जाते थे।
لِذَلِكَ أُعَرِّفُكُمْ أَنْ لَيْسَ أَحَدٌ وَهُوَ يَتَكَلَّمُ بِرُوحِ ٱللهِ يَقُولُ: «يَسُوعُ أَنَاثِيمَا». وَلَيْسَ أَحَدٌ يَقْدِرُ أَنْ يَقُولَ: «يَسُوعُ رَبٌّ» إِلَّا بِٱلرُّوحِ ٱلْقُدُسِ. ٣ 3
पस मैं तुम्हें बताता हूँ कि जो कोई ख़ुदा के रूह की हिदायत से बोलता है; वो नहीं कहता कि ईसा मला'ऊन है; और न कोई रूह उल — क़ुद्दूस के बग़ैर कह सकता है कि ईसा ख़ुदावन्द है।
فَأَنْوَاعُ مَوَاهِبَ مَوْجُودَةٌ، وَلَكِنَّ ٱلرُّوحَ وَاحِدٌ. ٤ 4
नेअ'मतें तो तरह तरह की हैं मगर रूह एक ही है।
وَأَنْوَاعُ خِدَمٍ مَوْجُودَةٌ، وَلَكِنَّ ٱلرَّبَّ وَاحِدٌ. ٥ 5
और ख़िदमतें तो तरह तरह की हैं मगर ख़ुदावन्द एक ही है।
وَأَنْوَاعُ أَعْمَالٍ مَوْجُودَةٌ، وَلَكِنَّ ٱللهَ وَاحِدٌ، ٱلَّذِي يَعْمَلُ ٱلْكُلَّ فِي ٱلْكُلِّ. ٦ 6
और तासीरें भी तरह तरह की हैं मगर ख़ुदा एक ही है जो सब में हर तरह का असर पैदा करता है।
وَلَكِنَّهُ لِكُلِّ وَاحِدٍ يُعْطَى إِظْهَارُ ٱلرُّوحِ لِلْمَنْفَعَةِ. ٧ 7
लेकिन हर शख़्स में पाक रूह का ज़ाहिर होना फ़ाइदा पहुँचाने के लिए होता है।
فَإِنَّهُ لِوَاحِدٍ يُعْطَى بِٱلرُّوحِ كَلَامُ حِكْمَةٍ، وَلِآخَرَ كَلَامُ عِلْمٍ بِحَسَبِ ٱلرُّوحِ ٱلْوَاحِدِ، ٨ 8
क्यूँकि एक को रूह के वसीले से हिक्मत का कलाम इनायत होता है और दूसरे को उसी रूह की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ इल्मियत का कलाम।
وَلِآخَرَ إِيمَانٌ بِٱلرُّوحِ ٱلْوَاحِدِ، وَلِآخَرَ مَوَاهِبُ شِفَاءٍ بِٱلرُّوحِ ٱلْوَاحِدِ. ٩ 9
किसी को उसी रूह से ईमान और किसी को उसी रूह से शिफ़ा देने की तौफ़ीक़।
وَلِآخَرَ عَمَلُ قُوَّاتٍ، وَلِآخَرَ نُبُوَّةٌ، وَلِآخَرَ تَمْيِيزُ ٱلْأَرْوَاحِ، وَلِآخَرَ أَنْوَاعُ أَلْسِنَةٍ، وَلِآخَرَ تَرْجَمَةُ أَلْسِنَةٍ. ١٠ 10
किसी को मोजिज़ों की क़ुदरत, किसी को नबुव्वत, किसी को रूहों का इम्तियाज़, किसी को तरह तरह की ज़बाने, किसी को ज़बानों का तर्जुमा करना।
وَلَكِنَّ هَذِهِ كُلَّهَا يَعْمَلُهَا ٱلرُّوحُ ٱلْوَاحِدُ بِعَيْنِهِ، قَاسِمًا لِكُلِّ وَاحِدٍ بِمُفْرَدِهِ، كَمَا يَشَاءُ. ١١ 11
लेकिन ये सब तासीरें वही एक रूह करता है; और जिस को जो चाहता है बाँटता है,
لِأَنَّهُ كَمَا أَنَّ ٱلْجَسَدَ هُوَ وَاحِدٌ وَلَهُ أَعْضَاءٌ كَثِيرَةٌ، وَكُلُّ أَعْضَاءِ ٱلْجَسَدِ ٱلْوَاحِدِ إِذَا كَانَتْ كَثِيرَةً هِيَ جَسَدٌ وَاحِدٌ، كَذَلِكَ ٱلْمَسِيحُ أَيْضًا. ١٢ 12
क्यूँकि जिस तरह बदन एक है और उस के आ'ज़ा बहुत से हैं, और बदन के सब आ'ज़ा गरचे बहुत से हैं, मगर हमसब मिलकर एक ही बदन हैं; उसी तरह मसीह भी है।
لِأَنَّنَا جَمِيعَنَا بِرُوحٍ وَاحِدٍ أَيْضًا ٱعْتَمَدْنَا إِلَى جَسَدٍ وَاحِدٍ، يَهُودًا كُنَّا أَمْ يُونَانِيِّينَ، عَبِيدًا أَمْ أَحْرَارًا، وَجَمِيعُنَا سُقِينَا رُوحًا وَاحِدًا. ١٣ 13
क्यूँकि हम सब में चाहे यहूदी हों, चाहे यूनानी, चाहे ग़ुलाम, चाहे आज़ाद, एक ही रूह के वसीले से एक बदन होने के लिए बपतिस्मा लिया और हम सब को एक ही रूह पिलाया गया।
فَإِنَّ ٱلْجَسَدَ أَيْضًا لَيْسَ عُضْوًا وَاحِدًا بَلْ أَعْضَاءٌ كَثِيرَةٌ. ١٤ 14
चुनाँचे बदन में एक ही आ'ज़ा नहीं बल्कि बहुत से हैं
إِنْ قَالَتِ ٱلرِّجْلُ: «لِأَنِّي لَسْتُ يَدًا، لَسْتُ مِنَ ٱلْجَسَدِ». أَفَلَمْ تَكُنْ لِذَلِكَ مِنَ ٱلْجَسَدِ؟ ١٥ 15
अगर पाँव कहे चुँकि मैं हाथ नहीं इसलिए बदन का नहीं तो वो इस वजह से बदन से अलग तो नहीं।
وَإِنْ قَالَتِ ٱلْأُذُنُ: «لِأِنِّي لَسْتُ عَيْنًا، لَسْتُ مِنَ ٱلْجَسَدِ». أَفَلَمْ تَكُنْ لِذَلِكَ مِنَ ٱلْجَسَدِ؟ ١٦ 16
और अगर कान कहे चुँकि मैं आँख नहीं इसलिए बदन का नहीं तो वो इस वजह से बदन से अलग तो नहीं।
لَوْ كَانَ كُلُّ ٱلْجَسَدِ عَيْنًا، فَأَيْنَ ٱلسَّمْعُ؟ لَوْ كَانَ ٱلْكُلُّ سَمْعًا، فَأَيْنَ ٱلشَّمُّ؟ ١٧ 17
अगर सारा बदन आँख ही होता तो सुनना कहाँ होता? अगर सुनना ही सुनना होता तो सूँघना कहाँ होता?
وَأَمَّا ٱلْآنَ فَقَدْ وَضَعَ ٱللهُ ٱلْأَعْضَاءَ، كُلَّ وَاحِدٍ مِنْهَا فِي ٱلْجَسَدِ، كَمَا أَرَادَ. ١٨ 18
मगर हक़ीक़त में ख़ुदा ने हर एक 'उज़्व को बदन में अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ रख्खा है।
وَلَكِنْ لَوْ كَانَ جَمِيعُهَا عُضْوًا وَاحِدًا، أَيْنَ ٱلْجَسَدُ؟ ١٩ 19
अगर वो सब एक ही 'उज़्व होते तो बदन कहाँ होता?
فَٱلْآنَ أَعْضَاءٌ كَثِيرَةٌ، وَلَكِنْ جَسَدٌ وَاحِدٌ. ٢٠ 20
मगर अब आ'ज़ा तो बहुत हैं लेकिन बदन एक ही है।
لَا تَقْدِرُ ٱلْعَيْنُ أَن تَقُولَ لِلْيَدِ: «لَا حَاجَةَ لِي إِلَيْكِ!». أَوِ ٱلرَّأْسُ أَيْضًا لِلرِّجْلَيْنِ: «لَا حَاجَةَ لِي إِلَيْكُمَا!». ٢١ 21
पस आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मैं तेरी मोहताज नहीं,” और न सिर पाँव से कह सकता है, “मैं तेरा मोहताज नहीं।”
بَلْ بِٱلْأَوْلَى أَعْضَاءُ ٱلْجَسَدِ ٱلَّتِي تَظْهَرُ أَضْعَفَ هِيَ ضَرُورِيَّةٌ. ٢٢ 22
बल्कि बदन के वो आ'ज़ा जो औरों से कमज़ोर मा'लूम होते हैं बहुत ही ज़रूरी हैं।
وَأَعْضَاءُ ٱلْجَسَدِ ٱلَّتِي نَحْسِبُ أَنَّهَا بِلَا كَرَامَةٍ نُعْطِيهَا كَرَامَةً أَفْضَلَ. وَٱلْأَعْضَاءُ ٱلْقَبِيحَةُ فِينَا لَهَا جَمَالٌ أَفْضَلُ. ٢٣ 23
और बदन के वो आ'ज़ा जिन्हें हम औरों की तरह ज़लील जानते हैं उन्हीं को ज़्यादा इज़्ज़त देते हैं और हमारे नाज़ेबा आ'ज़ा बहुत ज़ेबा हो जाते हैं।
وَأَمَّا ٱلْجَمِيلَةُ فِينَا فَلَيْسَ لَهَا ٱحْتِيَاجٌ. لَكِنَّ ٱللهَ مَزَجَ ٱلْجَسَدَ، مُعْطِيًا ٱلنَّاقِصَ كَرَامَةً أَفْضَلَ، ٢٤ 24
हालाँकि हमारे ज़ेबा आ'ज़ा मोहताज नहीं मगर ख़ुदा ने बदन को इस तरह मुरक्कब किया है, कि जो 'उज़्व मोहताज है उसी को ज़्यादा 'इज़्ज़त दी जाए।
لِكَيْ لَا يَكُونَ ٱنْشِقَاقٌ فِي ٱلْجَسَدِ، بَلْ تَهْتَمُّ ٱلْأَعْضَاءُ ٱهْتِمَامًا وَاحِدًا بَعْضُهَا لِبَعْضٍ. ٢٥ 25
ताकि बदन में जुदाई न पड़े, बल्कि आ'ज़ा एक दूसरे की बराबर फ़िक्र रख्खें।
فَإِنْ كَانَ عُضْوٌ وَاحِدٌ يَتَأَلَّمُ، فَجَمِيعُ ٱلْأَعْضَاءِ تَتَأَلَّمُ مَعَهُ. وَإِنْ كَانَ عُضْوٌ وَاحِدٌ يُكَرَّمُ، فَجَمِيعُ ٱلْأَعْضَاءِ تَفْرَحُ مَعَهُ. ٢٦ 26
पस अगर एक 'उज़्व दुःख पाता है तो सब आ'ज़ा उस के साथ दुःख पाते हैं।
وَأَمَّا أَنْتُمْ فَجَسَدُ ٱلْمَسِيحِ، وَأَعْضَاؤُهُ أَفْرَادًا. ٢٧ 27
इसी तरह तुम मिल कर मसीह का बदन हो और फ़र्दन आ'ज़ा हो।
فَوَضَعَ ٱللهُ أُنَاسًا فِي ٱلْكَنِيسَةِ: أَوَّلًا رُسُلًا، ثَانِيًا أَنْبِيَاءَ، ثَالِثًا مُعَلِّمِينَ، ثُمَّ قُوَّاتٍ، وَبَعْدَ ذَلِكَ مَوَاهِبَ شِفَاءٍ، أَعْوَانًا، تَدَابِيرَ، وَأَنْوَاعَ أَلْسِنَةٍ. ٢٨ 28
और ख़ुदा ने कलीसिया में अलग अलग शख़्स मुक़र्रर किए पहले रसूल दूसरे नबी तीसरे उस्ताद फिर मोजिज़े दिखाने वाले फिर शिफ़ा देने वाले मददगार मुन्तज़िम तरह तरह की ज़बाने बोलने वाले।
أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ رُسُلٌ؟ أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ أَنْبِيَاءُ؟ أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ مُعَلِّمُونَ؟ أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ أَصْحَابُ قُوَّاتٍ؟ ٢٩ 29
क्या सब रसूल हैं? क्या सब नबी हैं? क्या सब उस्ताद हैं? क्या सब मोजिज़े दिखानेवाले हैं?
أَلَعَلَّ لِلْجَمِيعِ مَوَاهِبَ شِفَاءٍ؟ أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ يَتَكَلَّمُونَ بِأَلْسِنَةٍ؟ أَلَعَلَّ ٱلْجَمِيعَ يُتَرْجِمُونَ؟ ٣٠ 30
क्या सब को शिफ़ा देने की ताक़त हासिल हुई? क्या सब तरह की ज़बाने बोलते हैं? क्या सब तर्जुमा करते हैं?
وَلَكِنْ جِدُّوا لِلْمَوَاهِبِ ٱلْحُسْنَى. وَأَيْضًا أُرِيكُمْ طَرِيقًا أَفْضَلَ. ٣١ 31
तुम बड़ी से बड़ी ने'मत की आरज़ू रख्खो, लेकिन और भी सब से उम्दा तरीक़ा तुम्हें बताता हूँ।

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